चाहने’ की अपेक्षा उनसे ‘प्रेम करना’ चाहिए, चाहना’ और ‘प्रेम करने में अंतर समझें
चाहने’ की अपेक्षा उनसे ‘प्रेम करना’ चाहिए, चाहना’ और ‘प्रेम करने में अंतर समझें
गर्वित मातृभूमि/रायपुर:- किसी वस्तु को ‘चाहना’ और किसी वस्तु से ‘प्रेम करना’; मोटे तौर पर यह दोनों बातें एक जैसी दिखती है। “परंतु वास्तव में एक जैसी हैं नहीं। इनमें बहुत अंतर है।”
जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु को ‘चाहता’ है, तो विचार करने की बात है, कि वह उसे क्यों चाहता है? अपने सुख के लिए। “यदि वह व्यक्ति उस वस्तु को अपने सुख के लिए चाहता है, तो उसे उसके मूल स्थान से उखाड़ कर अपने पास रख लेता है, उसका सुख लेता है।” “इस प्रक्रिया में वह वस्तु थोड़ी देर के लिए उसे सुख देती है, परन्तु क्योंकि वह वस्तु अपने मूल स्थान से उखाड़ ली गई, इसलिए वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है।”
दूसरी बात – यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु से ‘प्रेम करता’ है, तो उसका उद्देश्य भी उस वस्तु से सुख प्राप्त करना ही है। परंतु इस प्रक्रिया में उसका व्यवहार पूर्व की अपेक्षा कुछ भिन्न होता है। *”वह उस वस्तु को उसके मूल स्थान से उखाड़ता नहीं है, बल्कि उसकी सुरक्षा करता है। इससे उसे, उस वस्तु से लंबे समय तक सुख मिलता रहता है। बार-बार सुख मिलता रहता है।”
उदाहरण – एक व्यक्ति अपने घर में फूलों के पौधे लगाता है। उन पौधों पर फूल आते हैं। फिर वह फूलों को ‘चाहने’ लगता है। *”जिस फूल को वह चाहता है, वह उसे तोड़ लेता है। वह फूल कुछ समय तक अर्थात 4/6 घंटे उसको सुख देता है। उसके बाद वह मुरझा कर नष्ट हो जाता है।”
परंतु उसी घर का दूसरा व्यक्ति फूलों को तोड़ता नहीं, बल्कि फूलों के पौधों में पानी देता रहता है। *”वह उनकी रक्षा करता है। उनका विकास करता है। उसे लंबे समय तक फूलों का सुख मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ, कि वह फूलों से ‘प्रेम करता’ है।” बस यही अंतर है, ‘चाहने’ में और ‘प्रेम करने’ में।
“चाहने की प्रक्रिया में व्यक्ति फूल को तोड़ लेता है, और उससे फूल का शीघ्र ही नाश हो जाता है।” “जबकि प्रेम करने वाली प्रक्रिया में फूलों की सुरक्षा होती है, और वे फूल लंबे समय तक व्यक्ति को सुख देते हैं।” “इसलिए फूलों को ‘चाहें’ नहीं, बल्कि उनसे ‘प्रेम करें’।” जैसे यह एक उदाहरण है, ऐसे ही संसार की अन्य जड़ वस्तुओं या चेतनों के उदाहरण आप स्वयं समझ सकते हैं।
एक अन्य चेतन प्राणी का उदाहरण — आजकल बहुत से दुष्ट लोग, स्त्रियों का अपहरण कर लेते हैं। *”वे उन स्त्रियों को ‘चाहते’ हैं, परंतु वे उनसे ‘प्रेम नहीं करते’। वे दुष्ट लोग स्त्रियों को, उनके मूल स्थान से उखाड़ लेते हैं, अर्थात उनको परिवार से दूर कर के, उनका अपहरण कर लेते हैं। उसके बाद वे उनसे थोड़ा सा सुख लेकर, उन स्त्रियों का नाश भी कर देते हैं।” इस प्रक्रिया में, *”यह तो कह सकते हैं, कि वे उन स्त्रियों को चाहते थे,” परंतु “यह नहीं कह सकते, कि वे उनसे प्रेम करते थे।” क्योंकि “इस प्रक्रिया से परिणाम यह हुआ, कि सुख देने वाली वह स्त्री शीघ्र ही नष्ट हो गई।”
कुछ दूसरे प्रकार के लोग भी स्त्रियों से सुख प्राप्त करना चाहते हैं। वे स्त्रियों से ‘प्रेम करते’ हैं। और वे इस प्रक्रिया में स्त्रियों के साथ विधिवत विवाह करते हैं। “विवाह करने वाले लोग, स्त्रियों का पालन करते हैं, उन की सुरक्षा करते हैं, और जीवन भर उनसे सुख प्राप्त करते हैं।” “इस प्रक्रिया में वे स्त्रियों की रक्षा करते हैं। इस कारण से लंबे समय तक उन्हें स्त्रियों से सुख मिलता रहता है। इसका अर्थ यह हुआ, कि वे स्त्रियों को केवल ‘चाहते नहीं,’ बल्कि उनसे ‘प्रेम करते’ हैं।”
अब आप दोनों पद्धतियों की तुलना कर लीजिए। दोनों में से कौन सी पद्धति अच्छी है? बुद्धिमान लोगों का यही उत्तर होगा, कि *”दूसरी वाली पद्धति अच्छी है।”
“इसलिए वस्तुओं को ‘चाहने’ की अपेक्षा उनसे ‘प्रेम करना’ चाहिए, चाहे वे फूल आदि जड़ पदार्थ हों, चाहे स्त्री आदि चेतन प्राणी हों।”*
(नोट — इसका अर्थ यह न समझें, कि फूल कभी भी नहीं तोड़ने चाहिएं। जब फूल पूरी तरह से पक जाए, अंत में जब डाली से गिरने वाला हो, उस समय उसे तोड़ सकते हैं। तब फूलों की माला बनाकर उसका उपयोग कर सकते हैं। कच्चे फूल नहीं तोड़ने चाहिएं।)
—– *ज्योतिष कुमार रायपुर छत्तीसगढ़ ।