प्रकृति, परंपरा और सहजीवन की जीवित विरासत हैं आदिवासी : प्रो विनय पाठक

नरेश कुमार जोशी
गर्वित मातृभूमि/गरियाबंद/रायपुर/बालोद
आई एस बीएम विश्वविद्यालय में आयोजित “बदलता परिदृश्य और आदिवासी जीवन” विषय पर दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन हुआ जिसके मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. विनय कुमार पाठक थे तथा विशिष्ट वक्ता के रूप में वर्जिनिया कॉमनवेल्थ यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग के सीनियर फेलो डॉ मोनाली मल थी। आईएसबीएम विश्वविद्यालय के कुलाधिपति डॉ विनय एम. अग्रवाल, कुलपति डॉ आनंद महलवार, शैक्षणिक अधिष्ठाता डॉ एन कुमार स्वामी, छात्र कल्याण अधिष्ठाता डॉ शुभाशीष बिस्वास ने भी भी कार्यक्रम को संबोधित किया।
मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित वरिष्ठ साहित्यकार प्रो “लोक जीवन में आदिवासी समुदाय की अपनी एक खास जगह है। कोई भी लेखक जो कुछ लिखता है, वो उसकी अपनी सोच और अनुभव होता है, उसमें गलतियाँ हो सकती हैं। लेकिन जो बात समाज या लोक सोचता है, उसमें सदियों का अनुभव होता है, वो यूँ ही नहीं होता और आमतौर पर सही होता है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी समाज को सही तरीके से समझने के लिए जरूरी है कि हम उनके बीच जाकर उनका जीवन देखें-समझें। मुझे बहुत खुशी है कि ये संगोष्ठी उन्हीं के बीच हो रही है, जिससे असली बात सामने आ सकेगी। बदलते परिदृश्य में आदिवासियों को समझना आज के समय की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है, क्योंकि यह केवल सामाजिक न्याय का नहीं, सांस्कृतिक समझ और संवेदनशीलता का प्रश्न भी है। आदिवासी समाज हमारी सभ्यता की जड़ों से जुड़ा हुआ वह समुदाय है, जिसने प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर जीने की अनोखी परंपरा रची है।
अध्यक्षीय उद्बोधन देते हुए आईएसबीएम विश्वविद्यालय के कुलाधिपति डॉ विनय एम अग्रवाल ने कहा कि हम आज उस धरती पर हैं, जहाँ की मिट्टी में लोक परंपराओं, सांस्कृतिक विविधताओं और आदिवासी जीवन की सुगंध रची-बसी है। आदिवासी समाज हमारे देश की आत्मा है, जिनकी परंपराएँ, ज्ञान और जीवनशैली हमें संतुलित, सहअस्तित्वपूर्ण जीवन का पाठ पढ़ाती हैं। मैं यह प्रस्ताव करता हूँ कि एक आदिवासी म्यूज़ियम और लाइब्रेरी की स्थापना की जाए—एक ऐसा केंद्र जहाँ आदिवासी समुदायों की बोली, उनकी कला, शिल्प, रीति-रिवाज, लोककथाएँ, गीत, और ज्ञान परंपरा संरक्षित और प्रस्तुत की जा सके।
डॉ आनंद महलवार ने कहा कि आदिवासियों के पास प्रकृति, विशेष रूप से वनस्पतियों का अत्यंत समृद्ध और पारंपरिक ज्ञान है। वे पीढ़ियों से पेड़-पौधों की पहचान, औषधीय उपयोग और उनके संरक्षण की विधियों को जानते आए हैं। यह ज्ञान आज भी मुख्यधारा के विज्ञान और समाज से काफी हद तक अछूता है। आधुनिकता की दौड़ में हम अक्सर अपने आसपास के संसाधनों और अपनी संस्कृति के महत्व को नजरअंदाज कर देते हैं, जबकि आदिवासी समुदायों की जीवनशैली में प्रकृति के साथ गहरे जुड़ाव और संतुलन का उदाहरण देखने को मिलता है।
वर्जिनिया कॉमनवेल्थ यूनिवर्सिटी के डॉ मोनाली मल ने कहा कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदायों की आर्थिक स्थिति आज भी काफी कमजोर है, जहाँ अधिकांश लोग वनों, कृषि और दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर हैं। संसाधनों की सीमित पहुँच और बार-बार होने वाले विस्थापन ने इनकी आजीविका को अस्थिर बना दिया है। ऐसे में आदिवासी महिलाओं की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है, जो पारंपरिक ज्ञान, वनोपज संग्रह और घरेलू कुटीर उद्योगों के माध्यम से न केवल परिवार को संभालती हैं, बल्कि आर्थिक सहयोग भी करती हैं।
कार्यक्रम के संयोजक डॉ दिवाकर तिवारी ने कहा कि शहर से दूर, एक आदिवासी बहुल क्षेत्र में स्थित विश्वविद्यालय में किसी कार्यक्रम का आयोजन करना सरल कार्य नहीं है। भौगोलिक दूरी, संसाधनों की सीमितता और संचार की चुनौतियाँ इसे और भी जटिल बना देती हैं। फिर भी, नई जगह पर नए लोगों के साथ काम करने का अनुभव अनेक चुनौतियों के साथ-साथ कई नई संभावनाएँ भी लेकर आता है। यह प्रक्रिया न केवल हमारी कार्यशैली को समृद्ध करती है, बल्कि स्थानीय संस्कृति, जीवनशैली और सोच के नए आयामों से भी परिचित कराती है। इस तरह की चुनौतियाँ हमें लचीला बनाती हैं और विविधताओं को समझने व स्वीकार करने की दृष्टि विकसित करती हैं।”
विचार सत्र के पहले क्रम में डॉ निस्टर कुजूर, डॉ कुबेर सिंह गुरूपंच, डॉ रश्मि कुजूर और डॉ विनोद कुमार वर्मा ने प्रतिभागियों को संबोधित किया जो साहित्य, कला और स्थानीयता पर केंद्रित था।
दूसरा विचार सत्र आदिवासी श्रम, संसाधन और सामाजिक संरचना पर केंद्रित था जिसके वक्ता डॉ राजकुमार मीणा, डॉ आदर्श, डॉ जगन्नाथ दुबे थे। इसके बाद आईएसबीएम विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा निर्मित संग्रहालय आदिवासी कला वीथिका को अतिथियों एवं प्रतिभागियों ने देखा।