कविता
'माँ' तू बहुत याद आई
जब छुट्टियों में, ‘माँ’ मैं घर आई,
दरवाजे के बाहर तेरी जूतियां ना पाई,
परिंडे से लेकर बाड़े तक,
छत से लेकर चौबारे तक,
तुझे ढूंढ आई पर तू कहीं ना पाई,
‘माँ’ तू बहुत याद आई,
पैदल चलकर मैं खेतों में आई,
कुंडे के किनारे बनी तेरी झोपड़ी में से भी
तूने मुझे आवाज ना लगाई
‘माँ’ तू बहुत याद आई
मेरे अधिकारों के लिए तू सदा खड़ी रही
बिना पढ़े भी तूने मुझे संपूर्ण सृष्टि की
रीति नीति कुछ ही सालों में समझाई।
जब लोगों ने ताने दिए की सास ने
तुझे सबक नहीं सिखाया,
तो तेरी दी हुई नसीहते और सलाह ही
मेरे बहुत काम आई।
‘माँ’ तू बहुत याद आई।
उच्च शिक्षा के शिखर तक तूने मुझे पहुंचाया
तस्वीर लेते समय बाहर तो मुस्कुराई
अंतर्मन में तू ही ‘मां’ समाई,
तेरी कोख से पैदा ना हुई
बस इसी की बेचैनी मुझे ताउम्र सताई
‘माँ’ तू बहुत याद आई।
भगवान मैंने ना देखा पर तेरे संघर्ष के
आगे सदा अपनी आंखें नम ही पाई।
और क्या लिखती तेरे बारे में ‘मां’
अब कलम भी ना चल पाई
‘माँ’ तू बहुत याद आई ,
त्योहारों से पहले सौ बार फोन आ जाया करता था
इस होली पर तेरा फोन ना आया
तेरे जाने के बाद हॉल में तेरी तस्वीर लगाई
‘माँ’ तू बहुत याद आई।
तेरे आशीर्वाद से ही
मैंने अपनी जिंदगी
आगे बढ़ाई,
खुशकिस्मत वालों को
मिलती है दो माँएं
पीहर से लेकर ससुराल तक
मैंने अपने विचारों में सदा स्वच्छंदता पाई
‘माँ’ तू बहुत याद आई
तू कहती थी ना माँ आमली के पत्ते पर मौज करो
मैं सदा ही आपके आशीर्वाद से मौज करती आई
‘माँ’ तू बहुत याद आई।
डॉ.कांता मीना
शिक्षाविद् एवं साहित्यकार