फ़रेब एक लघुकथा पढ़कर आप भी चौंक जाएंगे हक़ीक़त है यह फरेब नहीं…
फ़रेब एक लघुकथा पढ़कर आप भी चौंक जाएंगे हक़ीक़त है यह फरेब नहीं…
गर्वित मातृभूमि (रायपुर)-
वक्त को करवट बदलते देर नहीं लगती। दर्द से निजात पाने के लिए उर्वशी ने डिब्बा खोल कर रात की दवाइयाँ ऐसी गटकी, मानो तीन दिनों से कुछ खाई ही न हो। इसके बाद बहुत देर तक बालकनी के दरवाजे खोल कर बारिश में डूबे अन्धकार को देखती रही… मौन और शून्यवत। आसमानी बिजली की चमक के साथ सारा परिदृश्य शव की तरह सफेद दिखाई पड़ रहा था। फिर कुछ समय बाद वापस आकर बेड में पसर गई, लेकिन नींद के स्थान पर सारे घटनाक्रम एक के बाद एक याद आने लगे।
उस दिन बादल की मटमैली परतों के पीछे सूरज छिपा हुआ था। दिन के चढ़ने के साथ ही क्षितिज में एक सफेद धब्बा शनैः शनैः फैल रहा था। रोशनी विलुप्त होती जा रही थी। बारिश से पहले की उमस, एकदम थमी सी हवा और भरी हुई चुप्पी… उसे लगा था सारी दुनिया में वह अकेली है। उसके सिवा कोई जिन्दा इंसान नहीं। फिर चलते-चलते वह दुनिया के आखिरी छोर पर पहुँच गई है… और आगे बस आकाश से पाताल तक हहराता हुआ एक गहरा नीला शून्य है।
इंदर इन्हीं दिनों मिला था उसे। वह रास्ता रोककर सामने खड़ा हो गया था। उसे रुकना पड़ा या रोक ली गई थी, यह ठीक से याद नहीं। कुछ भी हो लेकिन इंदर की बातों में जादू था। उसने कहा था- बहुत देर से मिले हम, लेकिन अब पल भर भी गवाना मुनासिब नहीं। तब इंदर सैंतीस का था और मैं एकचालीस की। फिर उसने कहा था- “मुझे तेरा इन्तजार रहेगा उर्वी।”
दरअसल उर्वशी पर अपनी माँ और छोटे भाई की जिम्मेदारी थी। पापा के देहान्त के बाद वह अनुकम्पा पर सरकारी मुलाजिम नियुक्त हो गई थी। वर्षों की जिम्मेदारी के बोझ से झुकी एक दिन अनायास ही वह हर तरह से आजाद हो गई। भाई उज्जवल ने जॉब लगते ही अपनी प्रेयसी से शादी कर अलग गृहस्थी बसा ली। उसके चन्द महीना बाद माँ हार्टफेल होने के कारण चल बसी थी।
उस दिन जुलाई का तीसरा शनिवार था। इंदर उसके घर आया। दिनभर तो सैर सपाटे में गुजर गया, फिर रात में वहीं ठहर गया। तब उसने उसके हाथ अपने हाथ में लेकर कहा था- जाने कब से बेघर हूँ मैं, अब मुझे अपने आश्रय में ही रहने दो उर्वी…। दूसरा दिन रविवार था। अलसुबह इंदर के जाने के बाद भी वह दोपहर तक चादर में सिमटी पड़ी रही।
वे दिन जादू भरे थे। इंदर ने उसे अपने प्यार में पूरी तरह रंग दिया था। वह फूल मांगती तो चाँद-तारे तोड़ लाता, जिधर पाँव रखती, उधर पलक-पावड़े बिछा देता। सुबह-शाम, दिन-रात अपने हर तरफ इंदर को पाती। उसके लिए प्यार में छलकते हुए… प्रतीक्षा में बेचैन। अक्सर फोन की घण्टी बज उठती… उधर से आवाज आती क्या कर रही हो उर्वी? खाना खाई हो या नहीं? नहाई हो कि नहीं? यानी फिकर का दूसरा नाम इंदर था।
इतना प्यार और तवज्जो उसे जीवन में इससे पहले कभी न मिला था। उसे ऐसा लगता था मानो वह कोई राजरानी हो और उसके सिर पर ताज धरा हो। कुछ ही दिनों में उसकी आलमारी उपहारों से भर गई थी। शुरू शुरू में उसे यह सब बहुत अच्छा लगता रहा, लेकिन धीरे-धीरे एक असहज करने वाली अनुभूति उसे घेरने लगी थी। किसी भी मामले पर मुँह खोलने से पहले ही इंदर उसे चुप करा देता और कहता- छोड़ो यार, तुम क्यों परेशान होती हो, मैं हूँ ना…।
तब मैं कह उठती- किसी भी मामले में एकतरफा ठीक नहीं। मुझे भी समझने और बोलने दो। तब इंदर बोल पड़ता- सब कुछ मुझ पर छोड़ दो।
इस तरह बहुत प्यार और सख्ती से कही गई उन बातों का मैं चाह कर भी विरोध नहीं कर पाती थी। मैं बस भ्रमित होकर बैठी रह जाती। कभी यह जरूर सोचती- कहीं यह अपना वर्चस्व बनाए रखने के पुरुषवादी तरीके तो नहीं है?
धीरे-धीरे इंदर जरा-जरा सी बात को बुरा मान कर अब मुँह बनाने लगा। एक बार किसी बात पर उत्तेजित होकर दीवार पर अपना सिर पटक कर खुद को जख़्मी कर लिया। उसके बाद एक दिन तो हद हो गई। उसने किसी छोटी सी बात पर मुझ पर हाथ उठा दिया। फिर बात-बात में मारपीट का सिलसिला सा चल पड़ा। लेकिन कभी-कभी सहज होकर कह उठता- उर्वी, मुझसे गलती हो गई, मुझे माफ कर दो यार।
उनकी यह बात सुनकर मेरे हृदय में उनके लिए प्यार उमड़ पड़ता। शायद ये उस एहसास का असर था कि उसने मुझे प्रेम करना सिखाया था। कई बार उसने कहा, जिसे इंसान प्यार करता है उसी से तो रुठता है। मर्द उसी पर हाथ उठाता है, जिसे अपनी समझता है।
शायद हर सम्बन्ध का एक हनीमून पीरियड होता है। मेरा भी था, जो धीरे-धीरे गुजरने लगा था। मेरे जीवन में एक चील की परछाई सा अन्धेरा धीरे-धीरे उतरने लगा था। इसका अहसास तब हुआ जब रोशनी का आखिरी कतरा तक जर्द पड़ गया। इंदर की हरकतें अब डराने लगी थीं। मेरी अनुपस्थिति में जल्दी-जल्दी मेरा फोन चेक करना, फिर हर बात की अपने ढंग से व्याख्या कर घण्टों लड़ना झगड़ना। इससे हर पल माहौल बोझिल सा रहने लगा।
धीरे-धीरे हमारे सम्बन्धों में शक के कीड़े पनपने लगे थे। मैं अब भी वैसे ही थी, जैसे प्रेम की शुरुआत में थी- निर्मल और पावन; लेकिन वह मेरी जासूसी करने लगा था। एक बार तो उसे बाथरूम में झाँकते हुए देखकर स्तब्ध रह गई थी। तब ऐसा लगा था कि अगर यह पृथ्वी फट जाए तो मैं उसमें समा जाऊँ। मेरे उर-अन्तस में अशान्ति पैठ करने लगी थी।
एक दिन पता चला इंदर शादीशुदा है और उसका एक बेटा और एक बेटी है। यह जानकर मैं बहुत रोई और कई दिनों तक रोती रही। मैंने उससे बोलना तक बन्द कर दिया था। शुरू में वह ना-नुकुर करता रहा, मगर बाद में स्वीकार किया कि ये सारा झूठ उसने सिर्फ उसका प्यार पाने के लिए बोला था। उसने कहा- मेरी माँ ने रुपयों की खातिर मेरी शादी अपनी दूर की मौसेरी बहन की बदसूरत बेटी से करा दी थी। माँ हार्ट की पेशेंट थी, जिसके कारण उसके आग्रह को ठुकरा न सका था।
इंदर के मुँह से ये बातें सुनकर मैं स्तब्ध रह गई थी। अगर कुछ बोल रहे थे तो वो थे मेरी आँखों से बहते हुए आँसू , जो मुझसे ही पूछ रहे थे, यह तूने क्या कर डाला उर्वशी? तूने बिना जाने परखे इस फरेबी से प्यार क्यों किया? तूने खुद से फरेब किया है, खुद को धोखा दिया है। लेकिन इंदर ने भरोसा दिलाते हुए कहा- जल्द ही अपनी पत्नी को छोड़ दूंगा। बच्चों को बोर्डिंग में डलवा दूंगा और फिर तुमसे शादी कर लूंगा।
इसके बाद दो बरस दुःस्वप्न की तरह बीते। वह आश्वासन देता रहा… वादा करता रहा, लेकिन उन बातों में सच्चाई कुछ न थी। कोई था भी तो नहीं मेरा इंदर के सिवा, लेकिन उनकी बातों की भूल-भुलैया में भटक- भटक कर कई तरह की बीमारियों से मेरा पाला पड़ने लगा। मानसिक सन्तुलन डगमगाने लगा। समझ न आता था कि क्या करूं? बस एक सहेली थी सरला, जो ढाढ़स बंधा जाती थी कि- “सब्र रखो, वक्त गुजरने के साथ सब ठीक हो जाएगा।”
हद सबकी होती है, सब्र की भी। अब मेरा सब्र जवाब देने लगा था। इंदर अब तक बोलते रहा, एक दिन मैं अपना हर वादा पूरा करूंगा और तुम्हें जरूर अपनाऊंगा, तुम्हारी मांग में सिन्दूर भरूंगा। अब मैं अड़तालीस की हो चुकी थी, लेकिन मेरी मांग अब भी सूनी थी। मैं फिर बोली- चार लोगों की उपस्थिति में कम से कम मेरी मांग में सिन्दूर तो भर दो, ताकि जब भी मरूँ, एक सुहागन की तरह मरूँ।
तब इंदर ने कहा था- यही प्रॉब्लम है कुँवारी लड़कियों से अफेयर करने का। शादी के लिए धीर नहीं धरती, जीना हराम कर देती है। अन्ततः हर बार इनकार करने के बाद इंदर ने एक दिन स्वीकार किया कि वह अब भी बीवी-बच्चों से मिलने जाता है।
मगर क्यों? मैंने पूछा ।
पत्नी को मन से कब का त्याग चुका हूँ, मगर इसके लिए मजबूर हूँ; क्योंकि फोन पर वह शिकायत करके नौकरी खत्म करा देने की धमकी देती है। वह अपने रसूखदार रिश्तेदारों को बुलाकर ठीक करवा देने की बात कहती है। लेकिन मेरे मन में तो सिर्फ तुम्ही बसी हो। यह कहते हुए इंदर रो पड़ा था।
मुझे कुछ सूझ न रहा था कि मैं क्या करुँ? विश्वास, उम्मीद सब कुछ खत्म हो चुका था। मेरी स्थिति परकटी चिड़िया की तरह हो गई थी। मैं मानसिक संत्रास में थी, लेकिन उससे अलग हो जाने की कल्पना मुझे आतंकित कर देती थी। कोई बच्चा भी मेरा चेहरा देखकर बता देता कि मैं अवसाद में हूँ।
कभी-कभी मैं बीमार अनुभूतियों से घिर जाती। बैठे-बैठे रोने लग जाती थी। तब सरला ने मुझे अपने साथ ले जाकर डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने मैनिक डिप्रेशन के लक्षण बताकर मेरे लिए लिथियम प्रेस क्राइव किया था और कहा था- यह तुम्हारे मूड सुइंग को स्थिर करेगा। अब मैं दवाइयाँ खाने लगी और थेरेपी से गुजरने लगी, लेकिन इन सबके बीच इंदर का ख्याल मेरे भीतर दिन-रात छाया रहता। उसकी चीखती आवाजें, तानें, व्यंग्य और हिंसा के अलावा प्यार के आरम्भिक दिनों की प्यार भरी बातें, ध्यान और परवाह सब याद आती।
मैं जिधर से गुजरती कानाफूसियाँ तेज हो जातीं। मेरे जीवन में तन्हाइयाँ थीं, इसके अलावा अन्धेरा और सन्नाटा भी। रोज के साधारण काम भी अब पहाड़ से लगते। किसी परित्यक्त घर की आत्मा की तरह अभिशप्त से लगते।
एक दिन इंदर का फोन आया। उसने बताया- मुझे प्रमोट करके तबादला कर दिया गया है। कल ही मैं नई पोस्टिंग पर जॉइन करने जा रहा हूँ। वहीं पास में मेरा गृह नगर भी है।
तब उर्वशी ने पूछा- और मैं?
इंदर की खूबसूरत आवाज गूंजी- तुम, अरे तुम तो मेरे दिल में रहोगी… हमेशा की तरह। मैं जहाँ भी रहूंगा, सिर्फ तुम्हारा रहूंगा। ये भौगोलिक दूरियाँ कभी हमें एक दूसरे से जुदा न कर पाएंगी… लेकिन मेरा एक सुझाव है, तुम अपने भाई-भावज के पास चले जाओ तो बेहतर होगा।
इसके बाद उर्वशी ने भागना छोड़ दिया। दरअसल उम्मीद के मर जाने से मौत आसान हो जाती है। अब उनके भीतर सिर्फ असीम शून्य ही शेष रह गया था। कुछ दिन यूँ ही गुजरे… तन्हाई, एकान्त और अकेले में।
आज उर्वशी ने फ्रिज में पड़ी रह गई रम की बोतल पूरी खाली कर दी। कोई कुछ भी कहे, अच्छा है ये नशा, जो इंसान को अपने में रहने नहीं देता। इंदर के जाने के बाद आज वह पहली बार फेसबुक खोलकर देखी। इंदर अपनी बीवी और बच्चों के साथ तस्वीर में मुस्कुरा रहा था। यह देखकर उर्वशी बुदबुदा उठी- “ये (इंदर) स्वार्थी और फरेबी है। इसके खून में फरेब है।”
उर्वशी ने दवाई का एक डिब्बा खोला, फिर गटक ली सारी दवाइयाँ। वह खड़ी हुई कुछ क्षण के लिए काँपी। फिर सहेली सरला को मोबाइल लगाई। उधर से आवाज आई- “उर्वशी सब ठीक तो है, इतनी देर रात को कैसे याद की?”
उर्वशी ने लड़खड़ाती आवाज में कहा- अब मैं जा रही हूँ। मुझे माफ करना। अ..ल..वि…। वाक्य पूरे न हो सके। उर्वशी की मृत देह फर्श पर ढह गई। आज नींद की गोलियाँ अपना काम कर गई थीं। सदा के लिए मौन पसर गया था!
- डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति/